:महान कृष्ण भक्त नरसी मेहता:
Hello doston mera naam Ajay hai Humne baat ki thi ab tak Naugarh ki navab ki Junagarh Shahar Ki Ab Ham baat karenge Narsi Mehta ke Narsi Mehta Junagarh Shahar ke rahvasi the vah Bhagwan Shri Krishna ke bahut Bade Bhakt the ab Ham baat karenge agale chapter Mein use Ham aapko Junagarh ka hartihasik apni is Book mein aapke Samne Rakh Rahe Hain Jo Itihaas aur ekadam bilkul sacchai hai
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:महान कृष्ण भक्त नरसी मेहता:
🌹Hare. Hare . Hare . Krishna🌹:महान कृष्ण भक्त नरसी मेहता:
महान कृष्ण भक्त नरसी मेहता का जन्म गुजरात प्रांत के जूनागढ़ शहर में ब्राह्मण कुल में हुआ था। बचपन में ही इन्हें साधुओं की संगति मिली, जिसके प्रभाव से इनमें भगवान श्री कृष्ण की भक्ति का उदय हुआ। धीरे-धीरे भगवान श्री कृष्ण की भक्ति और भजन-कीर्तन में ही इनका अधिकांश समय व्यतीत होने लगा। परिवार के लोग इनके रोज-रोज के साधु संग और भगवद्भजन को पसंद नहीं करते थे। उन लोगों ने इनसे घर-गृहस्थी के कार्यों में समय देने के लिए कहा, किन्तु नरसी जी पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा।
एक दिन इनकी भौजाई ने इन्हें ताना मारते हुए कहा कि ऐसी भक्ति उमड़ी है तो भगवान से मिल कर क्यों नहीं आते? इस ताने ने नरसी पर जादू का कार्य किया। वह उसी क्षण घर छोड़ कर निकल पड़े और जूनागढ़ से कुछ दूर एक पुराने शिव मंदिर में बैठकर भगवान शंकर की उपासना करने लगे। इनकी उपासना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और इन्हें गोलोक ले जाकर भगवान श्रीकृष्ण की रास लीला का दर्शन कराया।
दिन-रात भजन कीर्तन में लगे रहने और भरण-पोषण के लिए कोई कार्य न करने के कारण नरसी जी के परिवार में उपवास की स्थिति आ जाती थी। इनकी पत्नी ने इनसे बहुत बार कुछ कार्य करने के लिए कहा, किन्तु इनका विश्वास था कि इनके भरण-पोषण की सारी व्यवस्था भगवान स्वयं करेंगे। कहते हैं इनकी पुत्री के विवाह की सम्पूर्ण व्यवस्था भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं की थी। इसी प्रकार इनके पुत्र का विवाह भी भगवत्कृपा से ही सम्पन्न हुआ।
एक बार नरसी मेहता की जाति के लोगों ने उनसे कहा कि तुम अपने पिता का श्राद्ध करके सबको भोजन कराओ। नरसी जी ने भगवान श्री कृष्ण का स्मरण किया और देखते ही देखते सारी व्यवस्था हो गई। श्राद्ध के दिन कुछ घी कम पड़ गया और नरसी जी बर्तन लेकर बाजार से घी लाने के लिए गए। रास्ते में एक संत मंडली को इन्होंने भगवान नाम का संकीर्तन करते हुए देखा। नरसी जी भी उसमें शामिल हो गए। कीर्तन में यह इतना तल्लीन हो गए कि इन्हें घी ले जाने की सुध ही न रही। घर पर इनकी पत्नी बड़ी व्यग्रता से इनकी प्रतीक्षा कर रही थी।
भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ने नरसी का वेश बनाया और घी लेकर उनके घर पहुंचे। ब्राह्मण भोज का कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न हो गया। कीर्तन समाप्त होने पर काफी रात्रि बीत चुकी थी। नरसी जी सकुचाते हुए घी लेकर घर पहुंचे और पत्नी से विलम्ब के लिए क्षमा मांगने लगे। इनकी पत्नी ने कहा, ‘‘स्वामी! इसमें क्षमा मांगने की कौन-सी बात है? आप ही ने तो इसके पूर्व घी लाकर ब्राह्मणों को भोजन कराया है।’’
नरसी जी ने कहा, ‘‘भाग्यवान! तुम धन्य हो। वह मैं नहीं था, भगवान श्री कृष्ण थे। तुमने प्रभु का साक्षात दर्शन किया है। मैं तो साधु-मंडली में कीर्तन कर रहा था। कीर्तन बंद हो जाने पर घी लाने की याद आई और इसे लेकर आया हूं।’’
यह सुन कर नरसी जी की पत्नी आश्चर्य सागर में डूब गईं। इस प्रकार भगवान की अहैतुकी कृपा की अनेक घटनाएं नरसी जी के जीवन काल में हुईं। कुछ वर्ष बाद इनकी पत्नी और पुत्र का देहांत हो गया और ये अपना सम्पूर्ण समय भगवद्भजन में बिताने लगे। परम भक्त नरसी मेहता संसार के असंख्य प्राणियों को भगवत्कृपा एवं भगवद्भक्ति का कल्याणमय पथ दिखाकर अंत में गोलोकवासी हुए
नरसी मेहता महान कृष्ण भक्त थे. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनको 52 बार साक्षात दर्शन दिए थे. नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़, गुजरात मे हुआ था. इनका सम्पूर्ण जीवन भजन कीर्तन और कृष्ण की भक्ति में बीता. इन्होंने भगवान कृष्ण की भक्ति में अपना सब कुछ दान कर दिया था. मान्यता है कि महान भक्त नरसी मेहता की भक्ति के कारण श्री कृष्ण ने नानी बाई का मायरा भी भरा था. इस लेख में हम ऐसे महान कृष्ण भक्त की भक्ति की दिलचस्प कथाएं जानेंगे.
सर्वप्रथम भगवान शिव के साक्षात दर्शन की कथा
नरसी मेहता बचपन से ही भक्ति में डूबे रहते थे. आगे चलकर उन्हें साधु संतों की संगत मिल गई, जिसके कारण वे पूरे समय भजन कीर्तन किया करते थे. जिस कारण घर वाले उनसे परेशान थे. घर के लोगों ने इनसे घर-गृहस्थी के कार्यों में समय देने के लिए कहा, किन्तु नरसी जी पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा.
एक दिन इनकी भौजाई ने इन्हें ताना मारते हुए कहा कि ऐसी भक्ति उमड़ी है तो भगवान से मिलकर क्यों नहीं आते? इस ताने ने नरसी पर जादू का कार्य किया. वह उसी क्षण घर छोड़कर निकल पड़े और जूनागढ़ से कुछ दूर एक पुराने शिव मंदिर में बैठकर भगवान शंकर की उपासना करने लगे. उनकी उपासना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए जिसपर भगत नरसी ने भगवान शंकर से कृष्णजी के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की. उनकी इच्छा की पूर्ति हेतु भगवान शंकर ने नरसीजी को श्री कृष्ण के दर्शन करवाये. शिव इन्हें गोलोक ले गए जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला के दर्शन करवाये. भगत मेहता रासलीला देखते हुए इतने खो गए की मशाल से अपना हाथ जला बैठे. भगवान कृष्ण ने अपने स्पर्श से हाथ पहले जैसा कर दिया और नरसी जी को आशीर्वाद दिया.
पिता के श्राद्ध में भक्त नरसी जी पर श्री कृष्ण की कृपा की कथा
एक बार नरसी मेहता की जाति के लोगों ने उनसे कहा कि तुम अपने पिता का श्राद्ध करके सबको भोजन कराओ. नरसी जी ने भगवान श्री कृष्ण का स्मरण किया और देखते ही देखते सारी व्यवस्था हो गई. श्राद्ध के दिन कुछ घी कम पड़ गया और नरसी जी बर्तन लेकर बाजार से घी लाने के लिए गए. रास्ते में एक संत मंडली को इन्होंने भगवान नाम का संकीर्तन करते हुए देखा. नरसी जी भी उसमें शामिल हो गए. कीर्तन में यह इतना तल्लीन हो गए कि इन्हें घी ले जाने की सुध ही न रही. घर पर इनकी पत्नी इनकी प्रतीक्षा कर रही थी.
भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ने नरसी का वेश बनाया और स्वयं घी लेकर उनके घर पहुंचे. ब्राह्मण भोज का कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न हो गया. कीर्तन समाप्त होने पर काफी रात्रि बीत चुकी थी. नरसी जी सकुचाते हुए घी लेकर घर पहुंचे और पत्नी से विलम्ब के लिए क्षमा मांगने लगे. इनकी पत्नी ने कहा, ‘‘स्वामी! इसमें क्षमा मांगने की कौन-सी बात है? आप ही ने तो इसके पूर्व घी लाकर ब्राह्मणों को भोजन कराया है.’’
नरसी जी ने कहा, ‘‘भाग्यवान! तुम धन्य हो. वह मैं नहीं था, भगवान श्री कृष्ण थे. तुमने प्रभु का साक्षात दर्शन किया है. मैं तो साधु-मंडली में कीर्तन कर रहा था. कीर्तन बंद हो जाने पर घी लाने की याद आई और इसे लेकर आया हूं.’’ यह सुन कर नरसी जी की पत्नी आश्चर्यचकित हो गईं और श्री कृष्ण को बारम्बार प्रणाम करने लगी.
सांवल सेठ के रूप में स्वंय भगवान कृष्ण द्वारा हुंडी रखने की कथा
एक बार नागरिको ने नरसी जी की बेइज्जती करने के लिए कुछ तीर्थयात्रीयो को नरसी के घर भेज दिया और द्वारिका के किसी सेठ के ऊपर हुंडी लिखने के लिए कहा . नरसी के वहा कोई पहचान वाला ना होने पर भी साँवल सेठ कर नाम पर चिट्टी लिखी. पहले तो नरसी जी ने मना करते हुए कहा की मैं तो गरीब आदमी हूँ, मेरे पहचान का कोई सेठ नहीं जो तुम्हे द्वारका में हुंडी दे देगा, पर जब साधु नहीं माने तो उन्हों ने कागज ला कर पांच सौ रूपये की हुंडी द्वारका में देने के लिये लिख दी और देने वाले (टिका) का नाम सांवल शाह लिख दिया.
(हुंडी एक तरह के उस समय आज के डिमांड ड्राफ्ट के जैसी होती थी. इससे रास्ते में धन के चोरी होने का खतरा कम हो जाता था. जिस स्थान के लिये हुंडी लिखी होती थी, उस स्थान पर जिस के नाम की हुंडी हो वह हुंडी लेने वाले को धन दे देता था.)
द्वारका नगरी में पहुँचने पर संतों ने सब जगह पता किया लेकिन कहीं भी सांवल शाह नहीं मिले. सब कहने लगे की अब यह हुंडी तुम नरसीला से ही लेना.
उधर नरसी जी ने उस धन का सामान लाकर भंडारा देना शुरू कर दिया. जब सारा भंडारा हो गाया तो अंत में एक वृद्ध संत भोजन के लिये आए. नरसी जी की पत्नी ने जो सारे बर्तन खाली किये और जो आटा बचा था उस की चार रोटियां बनाकर उस वृद्ध संत को खिलाई. जैसे ही उस संत ने रोटी खाई वैसे ही उधर द्वारका में भगवान ने सांवल शाह के रूप में प्रगट हो कर संतों को हुंडी दे दी.
नानी बई का मायरा में स्वयं श्री कृष्ण द्वारा मायरा लाने की कथा
नानी बाई का मायरा’ भक्त नरसी की भगवान कृष्ण की भक्ति पर आधारित कथा है जिसमें ’मायरो’ अर्थात ’भात’ जो कि मामा या नाना द्वारा कन्या को उसकी शादी में दिया जाता है. नरसी के पास कुछ भी धन नही होने के कारण उनकी भक्ति की शक्ति से वह भात स्वयं भगवान श्री कृष्ण लाते हैं.
लोचना बाई नानी बाई की पुत्री थी, नानी बाई नरसी जी की पुत्री थी और सुलोचना बाई का विवाह जब तय हुआ था तब नानी बाई के ससुराल वालों ने यह सोचा कि नरसी एक गरीब व्यक्ति है तो वह शादी के लिये भात नहीं भर पायेगा, उनको लगा कि अगर वह साधुओं की टोली को लेकर पहुँचे तो उनकी बहुत बदनामी हो जायेगी इसलिये उन्होंने एक बहुत लम्बी सूची भात के सामान की बनाई उस सूची में करोड़ों का सामान लिख दिया गया जिससे कि नरसी उस सूची को देखकर खुद ही न आये.
नरसी जी को निमंत्रण भेजा गया साथ ही मायरा भरने की सूची भी भेजी गई परन्तु नरसी के पास केवल एक चीज़ थी वह थी श्री कृष्ण की भक्ति, इसलिये वे उनपर भरोसा करते हुए अपने संतों की टोली के साथ सुलोचना बाई को आर्शिवाद देने के लिये वहाँ पहुँच गये, उन्हें आता देख नानी बाई के ससुराल वाले भड़क गये और उनका अपमान करने लगे, अपने इस अपमान से नरसी जी व्यथित हो गये और रोते हुए श्री कृष्ण को याद करने लगे, नानी बाई भी अपने पिता के इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाई और आत्महत्या करने दौड़ पड़ी परन्तु श्री कृष्ण ने नानी बाई को रोक दिया और उसे यह कहा कि कल वह स्वयं नरसी के साथ मायरा भरने के लिये आयेंगे.
दूसरे दिन नानी बाई बड़ी ही उत्सुकता के साथ श्री कृष्ण और नरसी जी का इंतज़ार करने लगी और तभी सामने देखती है कि नरसी जी संतों की टोली और कृष्ण जी के साथ चले आ रहे हैं और उनके पीछे ऊँटों और घोड़ों की लम्बी कतार आ रही है जिनमें सामान लदा हुआ है, दूर तक बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियाँ नज़र आ रही थी, ऐसा मायरा न अभी तक किसी ने देखा था न ही देखेगा.
यह सब देखकर ससुराल वाले अपने किये पर पछताने लगे, उनके लोभ को भरने के लिये द्वारिकाधीश ने बारह घण्टे तक स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की, नानी बाई के ससुराल वाले उस सेठ को देखते ही रहे और सोचने लगे कि कौन है ये सेठ और ये क्यों नरसी जी की मदद कर रहा है, जब उनसे रहा न गया तो उन्होंने पूछा कि कृपा करके अपना परिचय दीजिये और आप क्यों नरसी जी की सहायता कर रहे हैं.
उनके इस प्रश्न के उत्तर में जो जवाब सेठ ने दिया वही इस कथा का सम्पूर्ण सार है तथा इस प्रसंग का केन्द्र भी है, इस उत्तर के बाद सारे प्रश्न अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं, सेठ जी का उत्तर था ’मैं नरसी जी का सेवक हूँ इनका अधिकार चलता है मुझपर जब कभी भी ये मुझे पुकारते हैं मैं दौड़ा चला आता हूँ इनके पास, जो ये चाहते हैं मैं वही करता हूँ इनके कहे कार्य को पूर्ण करना ही मेरा कर्तव्य है.
ये उत्तर सुनकर सभी हैरान रह गये और किसी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था बस नानी बाई ही समझती थी कि उसके पिता की भक्ति के कारण ही श्री कृष्ण उससे बंध गये हैं और उनका दुख अब देख नहीं पा रहे हैं इसलिये मायरा भरने के लिये स्वयं ही आ गये हैं, इससे यही साबित होता है कि भगवान केवल अपने भक्तों के वश में होते हैं


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